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हैदराबाद दुष्कर्म से उठे सवाल: कोर्ट में 10-10 साल सुनवाई, सिर्फ 30% केस में सालभर में फैसला आया

भास्कर 360° / हैदराबाद दुष्कर्म से उठे सवाल: कोर्ट में 10-10 साल सुनवाई, सिर्फ 30% केस में सालभर में फैसला आया

तेलंगाना और उन्नाव दुष्कर्म को लेकर पूरे देश में प्रदर्शन हुए।तेलंगाना और उन्नाव दुष्कर्म को लेकर पूरे देश में प्रदर्शन हुए।

  • 2 साल में 67 दुष्कर्मियों को फांसी सुनाई, फंदे तक कोई नहीं पहुंचा
  • एनुअल स्टेटिक्स 2018 के अनुसार-  मध्य प्रदेश, उत्तरप्रदेश और महाराष्ट्र में 66-66 ऐसे कैदी हैं, जिन्हें फांसी दी जानी है

Dainik Bhaskar

Dec 08, 2019, 09:31 AM IST
नई दिल्ली. 14 अगस्त 2004...। शनिवार का दिन। ये वो दिन था जब दुष्कर्म और  हत्या के दोषी धनंजय चटर्जी को पश्चिम बंगाल की अलीपोर सेंट्रल जेल में फांसी पर लटकाया गया था। धनंजय वो आखिरी दरिंदा है, जिसे दुष्कर्म-हत्या के मामले में फांसी हुई है। उसके बाद आज तक 15 सालों में कोई दुष्कर्मी अब तक फांसी के फंदे तक नहीं पहुंच पाया है। यह तब है जबकि हर साल ऐसे मामलों में फांसी की सजा सुनाई जाती रही हैं। इसके बाद भी लंबी कानूनी प्रक्रिया की आड़ लेकर यौन अपराधी फांसी की सज़ा से बचते आ रहे हैं। 
देश में 426 कैदी ऐसे हैं, जो फांसी की सजा पा चुके हैं, लेकिन अभी तक उन्हें फंदे तक नहीं पहुंचाया जा सका है। इनमें बड़ी संख्या में दुष्कर्म-हत्या के दोषी भी हैं। नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी की रिपोर्ट : द डेथ पेनल्टी इन इंडिया, एनुअल स्टेटिक्स 2018 के अनुसार-  मध्य प्रदेश, उत्तरप्रदेश और महाराष्ट्र में 66-66 ऐसे कैदी हैं, जिन्हें फांसी दी जानी है। मामलों को तेजी से निपटाने के लिए फास्ट ट्रैक कोर्ट बनाए गए थे, लेकिन यही कोर्ट स्लो साबित हो रहे हैं। बिहार, तेलंगाना, उत्तरप्रदेश और केरल में इनके न्याय की रफ्तार बहुत धीमी है। 

समूचे देश की बात करें तो 2017 में सुनाए गए फैसलों में सिर्फ 30% मामले ऐसे थे, जो एक साल के भीतर निपटाए गए। 30% एक से तीन साल के भीतर, वहीं बाकी 40% मामलों ने तीन साल से ऊपर का वक्त लिया। वहीं निचली अदालतों का प्रदर्शन ज्यादा बेहतर रहा। निचली अदालतों ने 47% मामले एक साल के भीतर निपटा दिए। देश में न सिर्फ न्याय की यह रफ्तार धीमी है, वहीं रिकॉर्ड संख्या में फांसी की सजा सुनाए जाने के बावजूद दोषी फांसी के फंदे तक पहुंच नहीं पा रहे हैं। बार-बार अपील और सुनवाई में लगने वाला समय इतना ज्यादा है कि पीड़ित पक्ष इंसाफ मिलने के बाद भी उसे महसूस नहीं कर पाता। भास्कर 360 में आज पढ़िए, क्यों धीमे साबित हो रहे हैं हमारे फास्ट ट्रैक कोर्ट।
चौंकाने वाले आंकड़े :
  • 6 लाख से ज्यादा पेंडेंसी फास्ट ट्रैक कोर्ट्स में।
  • लोकसभा में दिए जवाब के मुताबिक, देशभर में 581 फास्ट ट्रैक कोर्ट्स हैं। स्थिति 31 मार्च, 2019 तक। 
  • 426 कैदी ऐसे, जिन्हें फांसी दी जानी है।
  • 2018 में 162 दोषियों को ट्रायल कोर्ट ने फांसी सुनाई। 2000 के बाद से अब तक यह सबसे बड़ी संख्या है।
  • 24 आरोपी 2016 में रेप-मर्डर के लिए फांसी सुनाई।
  • 43 आरोपी ऐसे जिन्हें 2017 में रेप-मर्डर के लिए फांसी की सजा सुनाई गई। यानी पिछली बार से 19 ज्यादा।
सुप्रीम कोर्ट का रुख उलट
2018 में जहां ट्रायल कोर्ट्स ने दोषियों पर सख्ती दिखाई। वहीं सुप्रीम कोर्ट में फांसी की सजा से जुड़े 12 मामलों में सुनवाई हुई। 11 में कोर्ट ने फांसी की सजा को उम्रकैद में बदल दिया।
निर्भया के बाद रेप के 4 लाख केस 
2012 के निर्भया केस के बाद दुष्कर्म के 4 लाख से अधिक मामले दर्ज हुए। वहीं 15 साल में एक भी बलात्कारी को फांसी पर नहीं लटकाया गया।  
फास्ट ट्रैक, क्या वाकई फास्ट हैं?
फास्ट ट्रैक कोर्ट, इन्हें त्वरित न्याय के लिए बनाया गया था। इसके बावजूद ये स्लो साबित हो रही हैं। फैसले में दस-दस साल लग रहे हैं। बिहार, तेलंगाना जैसे राज्यों का सबसे बुरा रिकॉर्ड है। बिहार में 37 फीसदी मामले ऐसे रहे, जिन्हें निपटाने में दस साल से ज्यादा समय लग गया। वहीं तेलंगाना में 12 फीसदी मामले ऐसे रहे, जो दस साल से ज्यादा चले। वहीं निचली अदालतों का प्रदर्शन ज्यादा बेहतर रहा।  निचली अदालतों ने 47% मामले एक साल के भीतर निपटा दिए।
पॉक्सो में सबसे बुरा रिकॉर्ड इन राज्यों का :
यूपी: उत्तर प्रदेश में पॉक्सो के तहत 42379 मामले लंबित, देश में ये सबसे ज्यादा हैं।
महाराष्ट्र: दूसरे नंबर पर महाराष्ट्र है। यहां पॉक्सो के  19968 मामले लंबित हैं।
फैसले की रफ्तार
अगर अदालतों द्वारा फैसले देने की दर देखी जाए तो साल 2002 से 2011 के बीच सभी मामलों में यह लगभग 26 प्रतिशत तक रही थी। हालांकि, साल 2012 के बाद अदालतों में फैसले मिलने की दर में कुछ सुधार देखने को ज़रूर मिला लेकिन इसके बाद साल 2016 में यह दर दोबारा गिरकर 25 प्रतिशत पर आ गई। साल 2017 में यह दर 32 प्रतिशत से कुछ ऊपर रही।
रोज औसत 90 रेप
साल 2017 में जारी सरकारी आंकड़ों के मुताबिक़, भारत में हर रोज औसतन 90 से अधिक रेप के मामले दर्ज किए जाते हैं। हालांकि इनमें से बहुत ही कम रेप पीड़िता अपने साथ दुष्कर्म करने वाले दोषियों को सजा पाते हुए देख पाती हैं। सरकारी आंकड़े ही बता रहे हैं की रेप के मामलों में न्यायिक रफ्तार काफी धीमी है।   
3 पीढ़ियों के सबसे दर्दनाक 3 मामले, जिन्होंने बदला कानून :
1972 : पहला आंदोलन - मथुरा केस
हुआ क्या था? महाराष्ट्र के गढ़चिरौली में दो कांस्टेबलों ने मथुरा के साथ थाने में ही दुष्कर्म किया। निचली अदालत ने दोनों आरोपियों को िसर्फ इस आधार पर छोड़ दिया, क्योंकि मथुरा ने विरोध नहीं किया और उसके शरीर पर चोट के निशान नहीं थे।
असर क्या हुआ? आंदोलनों के चलते ही 1983 में भारतीय दंड संहिता में बदलाव कर दुष्कर्म की धारा 376 में चार उपधाराएं ए, बी, सी और डी जोड़कर हिरासत में दुष्कर्म के लिए सजा का प्रावधान किया गया।
1992 : दूसरा आंदोलन- भंवरी दुष्कर्म
हुआ क्या था?  22 सितंबर, 1992 को राजस्थान की भंवरी देवी के साथ सामूहिक दुष्कर्म किया गया। सेशन कोर्ट ने सभी आरोपियों को बरी कर दिया क्योंकि पंचायत से लेकर पुलिस, डॉक्टर सभी ने आरोप को सिरे से ख़ारिज कर दिया।
असर क्या हुआ? सुप्रीम कोर्ट ने विशाखा गाइडलाइंस के तहत कार्यस्थल के मालिक पर यह जिम्मेदारी डाली कि किसी भी महिला को कार्यस्थल पर बंधक जैसा महसूस ना हो। 2013 में 'सेक्सुअल हैरेसमेंट ऑफ वुमन एट वर्कप्लेस एक्ट' आया।
2012 : तीसरा आंदोलन- निर्भया केस
हुआ क्या था?16 दिसंबर, 2012 की रात दिल्ली में निर्भया कांड हुआ। छह बदमाशों ने चलती बस में पैरामेडिकल की छात्रा से गैंगरेप किया।
असर क्या हुआ?  3 फरवरी 2013 को क्रिमिनल लॉ अमेंडमेंट ऑर्डिनेंस आया। दुष्कर्मियों को फांसी का प्रावधान हुआ। 22 दिसंबर 2015 में राज्यसभा में जुवेनाइल जस्टिस बिल पास हुआ। इसके तहत 16 साल या उससे अधिक उम्र के बालक को जघन्य अपराध करने पर वयस्क मानकर मुकदमा चलाया जाएगा। अप्रैल 2018 में पॉक्सो कानून बदला। 12 से कम उम्र की बच्चियों से रेप पर फांसी का प्रावधान।
भास्कर एक्सपर्ट- विराग गुप्ता ( सुप्रीम कोर्ट के वकील )
संविधान के अनुच्छेद 72 में राष्ट्रपति और अनुच्छेद 161 के तहत राज्यपाल को सजा कम करने या रद्द करने का अधिकार है। लेकिन मृत्युदंड के मामलों में सिर्फ राष्ट्रपति को ही विशेष अधिकार हासिल हैं। संवैधानिक व्यवस्था और सुप्रीम कोर्ट के फैसले के अनुसार राष्ट्रपति और राज्यपाल दया याचिका के मामलों में मंत्रिमंडल की अनुशंसा के आधार पर निर्णय लेते हैं। सीआरपीसी कानून से यह स्पष्ट है कि उम्र कैद के मामलों में क्षमा मिलने के बावजूद 14 साल की न्यूनतम सजा भुगतना होगा। मृत्युदंड मामलों में भी दया याचिका के स्वीकार के बावजूद अपराधी को आजीवन कारावास की सजा भुगतनी होती है। नाबालिग के खिलाफ अपराध के पॉक्सो मामलों में दया याचिका की व्यवस्था खत्म करने के लिए राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति के दिए गए सुझावों पर अमल के लिए संविधान में संशोधन करना होगा। पॉक्सो मामलों में दया याचिका के तुरंत डिस्मिसल की व्यवस्था बन जाए तो संविधान संशोधन करने की जरूरत ही क्यों पड़े? 

मृत्युदंड के मामले सबसे गंभीर होते हैं, जिनमे सीआरपीसी की धरा 366 के अनुसार हाईकोर्ट का फैसला अंतिम हो जाता है। सांसदों का यह बयान नासमझी भरा है कि बलात्कार के मामलों की सुनवाई सीधी सुप्रीम कोर्ट में होनी चाहिए। सुप्रीम कोर्ट देश की संवैधानिक अदालत है, और अनुच्छेद 136 के तहत एसएलपी के मामलों में विशेष अधिकार का ही इस्तेमाल होना चाहिए। इसके बावजूद हर मामले में सुप्रीम कोर्ट में विशेष अनुमति याचिका (एसएलपी) दायर करने का बढ़ता चलन, अपराधियों की सजा में विलम्ब का बड़ा कारण बन गया है। एसएलपी के निस्तारण में अनेक दशक लग जाते हैं और अब ऐसे सभी मामलों में पुनर्विचार याचिका (रिव्यू) और क्यूरेटिव याचिका के बढ़ते फैशन से मुकदमों के निस्तारण और अपराधियों को सजा में और ज्यादा देर होने लगी है।

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